जेपी और मोरारजी की भूल न दोहराएं राहुल


  • लेकिन, तुम सावधान रहना 'राहुल'...!!

✍️ इंतेखाब आलम लोदी (लेखक, युवा पत्रकार हैं।) 

जेपी ने सम्पूर्ण क्रांति के लिए जो बिंदु सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए निर्धारित किये थे, इंदिरा गांधी के घोर विरोध के कारण वह बिंदु नेपथ्य में चले गए और जेपी की क्रांति मात्र सत्ता परिवर्तन का लक्ष्य हासिल कर पाई।

दरअसल जेपी की सम्पूर्ण क्रांति भारतीय समाज के फेब्रिक को बदलना चाहती थी, लेकिन इंदिरा विरोध उन्हें भटका गया और वे अपने-पराए में भेद न कर सारे विपक्ष को एक तंबू के नीचे लाने में जुट गए।

जेपी द्वारा जुटाए गए इस भानुमति के कुन्बे में सिर्फ़ एक विचार सामान था, वह था इंदिरा विरोध।

ऐसा ही एक दल था आरएसएस.., आज़ादी के आंदोलन में नकारात्मक भूमिका के लिए तब "आरएसएस" को सामाजिक स्वीकार्यता नहीं मिली थी, वह अपने इतिहास को पीठ पर लादे किसी ऐसी ही छाया के इंतज़ार में था, जो जेपी की छतरी के रूप में उन्हें मिल गया।

जेपी की मंशा जो भी रही हो, लेकिन उन्हें "आरएसएस" को सामाजिक राजनीतिक मान्यता देने के लिए ज़िम्मेदार तो माना ही जाना चाहिए, यह दाग़ उनके धवल चरित्र पर बहुत गहरा है।

आगे इंदिरा विरोध की अग्नि में जलने वाले मोरारजी भाई ने भी जेपी की भूल को बहुत अच्छी तरह दोहराया।

मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि आज इंदिरा चाहे नहीं है, लेकिन मोदी के रूप में उनकी छाया लोकतंत्र को कुचल रही है।

कमोबेश वही नज़ारा है, तब चौधरी चरण सिंह थे, आज राकेश टिकैत है।

तब गुजरात और बिहार में बदलाव की बयार बहती थी, आज पंजाब और हरियाणा है।

तब, लालू, मुलायम, नितीश, शरद यादव, मधु लिमये जैसे छात्र बदलाव के वाहक बने थे, आज कन्हैया, जिग्नेश, हार्दिक और उमर ख़ालिद हैं।

तब इनको नेतृत्व देने जेपी जैसा परिपक्व स्वप्न द्रष्टा था, आज नेतृत्व का अकाल है।

हां, समय में बड़ा भारी बदलाव कर दिया है, तब इंदिरा के विरोध में परस्पर विरोधी एक छत्र के नीचे एक हुए थे, आज इंदिरा का पोता बदलाव की मांग कर रहा है।

आज राहुल के पास भी अनुभव उतना ही है, जितना कन्हैया या जिग्नेश के पास। 

कुछ अलग है तो यह कि उनके पास गांधी परिवार का नाम है उसकी विरासत है, लेकिन विरोधाभास यह भी है कि उसको अब अपनी ही दादी इंदिरा की विरासत छोड़ लोकतंत्र की पुनर्स्थापना के लिए लड़ना पड़ रहा है।

कन्हैया, जिग्नेश अगर कांग्रेस में आए तो यह स्वागत योग्य होना चाहिए, क्योंकि कन्हैया विचार बेचकर नहीं आया, उसने समय की मांग को समझा और कथित तौर पर एलीट क्लास की संपत्ति बन चुके वाम का दामन छोड़ कर वैचारिक स्तर पर लगभग सामान उद्देश्य के लिए लड़ने वाले अपेक्षाकृत एक सक्षम और युवा नेता का साथ देना उचित समझा।

विचार और उद्देश्य सामान हों तो पार्टी महत्व नहीं रखती, हर किसी को अपने और साझा उद्देश्य प्राप्त करने अपेक्षकृत ज़्यादा सक्षम पार्टी और नेता को चुनने का अधिकार होना चाहिए।

ख़ैर, कन्हैया-जिग्नेश या हार्दिक तो ठीक, लेकिन राहुल को अब नए साथी चुनने के लिए सतर्कता बरतना होगी, जो भूल जेपी या मोरारजी कर गए उसको ध्यान में रखना होगा, किसी भी सूरत में बीजेपी छोड़कर कांग्रेस की छतरी में छाँव तलाशने वाले जासूसों को जगह नहीं देना ही श्रेयस्कर होगा।

क्योंकि संघ अब छद्म खेल खेलेगा...फर्ज़ी टूट बनेगी..नेपथ्य के नेतृत्व को मंच उपलब्ध करवाया जाएगा।

लेकिन, तुम सावधान रहना 'राहुल'...!!

स्वप्न-बीच जो कुछ सुन्दर हो उसे सत्य में व्याप्त करूं।

और सत्य तनु के कुत्सित मल का अस्तित्व समाप्त करूं।।

                



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