बदला जमाना, पुलिस पुरानी : अपराधी से लेकर फरियादी तक आधुनिक, पुलिस अब भी बाबा आदम के दौर में..!


✍️खान आशु

भोपाल। तू डाल डाल, मैं पात पात को आत्मसात करते हुए अपराध जगत ने अपने काम के तरीकों में आधुनिकीकरण कर लिया। फरियाद और गुहार लगाने वाले भी नए दौर के तौर तरीकों में रंग चुके हैं। लेकिन इसके विपरीत पुलिसिया ढर्रा अब भी बाबा आदम के जमाने के तरीकों पर ही कायम है। नतीजा अपराध, सुनवाई, कार्यवाही का तालमेल डगमगाने लगा है। मजबूरी में पुलिस विभाग को दिखावे और बनावटी कार्यवाही से लोगों को संतुष्ट करना पड़ रहा है।

कंप्यूटर और इंटरनेट के दौर में कदमताल करते हुए अपराधियों ने अपने काम के तरीकों में पहले से कई बदलाव कर लिए हैं। मामूली चोरी, लूटपाट, मारपीट और हत्या जैसे मामलों की जगह अब साइबर ठगी और ऑनलाइन जुर्म ने ले ली है। आधुनिकता ने घरेलू झगड़ों का स्वरूप बदलकर कई नए अपराधों में तब्दील कर दिया है। लेकिन इन बदलते मामलों के इलाज या समाधान का तरीका पुलिस के पास अब भी पुराना ही है। नतीजा यह है कि लोग पुलिस कार्यवाही से असंतुष्ट और खुद को न्याय से बाहर मानने लगे हैं।

हर दर्द की एक दवा

पुलिस विभाग से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि चिकित्सा से लेकर अदालत तक के मामलों में हर एक मामले का एक अलग विशेषज्ञ होता है, जो संबंधित मर्ज का समाधान देता है। लेकिन पुलिस विभाग में ऐसी कोई विशेषज्ञ प्रणाली लागू नहीं है। हर तरह के अपराध और हर तरह के मामलों को हल करने की जिम्मेदारी उन्हीं चुनिंदा लोगों पर होती है, जो विभाग में पदस्थ हैं। यहां तक कि आज के इंटरनेट के दौर में कंप्यूटर या मोबाइल संचालित करने के एक्सपर्ट भी विभाग के पास नहीं हैं। विभागीय अधिकारियों का कहना है कि इस कमी का नतीजा यह है कि सीमित लोगों से उनके ज्ञान और जानकारी के मुताबिक काम करवाने की मजबूरी बनी रहती है।

एक्सपर्ट भर्ती हो, प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलाए जाएं

नाम न छापने की शर्त पर पुलिस अधिकारी कहते हैं कि सरकार और विभाग केजिम्मेदारों को कार्ययोजना तैयार कर भविष्य में होने वाली पुलिस भर्ती में विशेषज्ञता का ध्यान रखना चाहिए। उनका कहना है कि आधुनिक दौर के लिहाज से कंप्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल संचालन की दक्षता रखने वालों की भर्ती से भविष्य में व्यवस्था सुधार में आसानी होगी। अधिकारी कहते हैं कि पुराने तौर तरीकों पर काम कर रहे पुलिसकर्मियों को ताजा दौर से कदमताल करने के लिए समय समय पर प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाकर भी प्रशिक्षित किया जा सकता है। इससे भी काम में आसानी की उम्मीद की जा सकती है।

बिना सारथी का विभाग

सूत्रों का कहना है कि राजधानी भोपाल समेत प्रदेश के अधिकांश थानों में विभाग के वाहन चालन के लिए ड्राइवर की पोस्टिंग ही नहीं है। जहां ये पदस्थ किए भी गए हैं, उनकी संख्या जरूरत से कम है। 24 घंटे गश्त की अधिकारियों की उम्मीद का नतीजा यह है कि थानों को अपने स्टाफ में मौजूद किसी सिपाही से वाहन चलवाना पड़ रहा है। परंपरा अनुसार बिना बीमा दौड़ रहे पुलिस विभाग के वाहनों में किसी तरह के नुकसान के हालात में जिम्मेदारी उस सिपाही पर आ पड़ती है, जो बिना अधिकृत सेवा के वाहन चालन कर रहा होता है।

सबकी नजर टीआई पर

बड़े अधिकारी बड़े हैं, इसलिए उनके पास आए किसी भी काम की जिम्मेदारी आसानी से नीचे सरका दी जाती है। इसके लिए सबसे आसान चयन किसी थाने के प्रभारी का ही होता है। निचले स्तर के अमले को भी कोई काम होता है तो उनकी दौड़ की सीमा भी थाना प्रभारी तक ही होती है। उच्च अधिकारियों और निचले स्तर के स्टॉफ के बीच कड़ी बना थाना प्रभारी खुद को असहज महसूस करता है।

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