3 दिसम्बर, विश्व दिव्यांग दिवस पर विशेष : सामाजिक स्वीकृति से सशक्त होंगे दिव्यांग


✍️अमित सिंह कुशवाहा 

धुनिक युग में मुक्ति आंदोलनों एवं स्वाधीनता संग्रामों ने लोकतांत्रिक समाज की अवधारणा को जन्म दिया और राष्ट्र राज्य का अभ्युदय भी इसी प्रक्रिया का अंग था। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात राष्ट्र राज्यों ने एक लोक कल्याणकारी भूमिका निभाने का मन बनाया था - आजाद भारत भी उसमें शामिल था। देश के स्वाधीनता संग्राम में अर्जित मूल्य और भारतीय संविधान - सभी का यह मानना तथा कहना था कि समाज के कमजोर, गरीब तथा अलग-थलग पड़े हिस्से को विशेष महत्व तथा प्राथमिकता दी जाए।

✍️अमित सिंह कुशवाहा (लेखक दिव्यांग बच्चों की शिक्षा, प्रशिक्षण एवं पुनर्वास क्षेत्र में कार्यरत हैं)

भारत की आजादी के बाद इस दिशा में पहल भी की गई। कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए नियम-कानून और योजनाएं बनाई गईं। काफी सीमा तक उन पर अमल भी हुआ परंतु शारीरिक और मानसिक रूप से चुनौतीपूर्ण तबके पर सरकार तथा समाज का ध्यान कम ही जा पाया। बेहतरी और सुविधाओं से जुड़ी घोषणाएं तो हुईं परंतु समाज के इस तबके तक उसका लाभ नहीं पहुंच पाया और ना ही समाज की सोच में कोई बदलाव आया। इच्छाशक्ति की कमी और सत्ता प्रतिष्ठान की सोच इसका मूल कारण रही है।

यदि हम भारत के दिव्यांगों की वर्तमान दशा पर विचार करें तो सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के अथक प्रयासों के बावजूद अभी तक दिव्यांगों को शिक्षा, प्रशिक्षण और पुनर्वास की बेहतर सेवाएं उपलब्ध करा पाने की योजनाएं अपेक्षित सफल नहीं हो पाई हैं। हालांकि इस बात में कोई शक नहीं होना चाहिए कि इन सामूहिक प्रयासों की वजह से ही स्थिति में पहले की तुलना में कुछ बदलाव अवश्य देखने को मिलता है।

दिव्यांगों के कल्याण की राह में सबसे बड़ी बाधा समाज में दिव्यांगता के प्रति व्याप्त अंधविश्वास और अज्ञानता है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांगता का प्रतिशत शहरी क्षेत्रों की तुलना में काफी अधिक है। इसका कारण गरीबी, कुपोषण और पर्याप्त सुविधाओं का अभाव है। दुर्भाग्यवश दिव्यांगता के लिए प्रकृति के अन्याय को दोषी ठहराया जाता है जबकि इसके पीछे शत-प्रतिशत मानवीय कारक ही जिम्मेदार हैं। आज भी हमारे देश में गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य, उचित पोषण और सुरक्षित प्रसव की सुविधाओं का अभाव है तथा समाज में जागरूकता की कमी के चलते जन्म लेने वाले बच्चे में दिव्यांगता होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है।

दिव्यांगता को छिपाने की प्रवृत्ति के चलते सही समय पर दिव्यांग बच्चों की पहचान नहीं हो पाती, जिससे उनका पुनर्वास कार्यक्रम बुरी तरह से प्रभावित होता है और वे अपनी बची क्षमताओं का इस्तेमाल कर आगे नहीं बढ़ पाते हैं। यह विडम्बना है कि 80 प्रतिशत शिक्षा, प्रशिक्षण और पुनर्वास सेवाओं की उपलब्धता शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है, जबकि दिव्यांगों का एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है। दिव्यांगों के लिए उपलब्ध व्यावसायिक प्रशिक्षण और स्वरोजगार के साधनों की स्थिति तो और भी चिंताजनक है।

यदि हम दिव्यांगों की वर्तमान स्थिति पर विचार करें तो यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा कि आजादी के 7 दशर्कोंं के बाद भी दिव्यांगों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने में अपेक्षित सफलता अभी तक नहीं मिल पाई है। लोकतंत्र के नाम पर स्थापित सत्ता प्रतिष्ठानों में दिव्यांगों की उपस्थिति पर कभी कोई विचार नहीं किया गया। राजनीतिक दल कभी किसी दिव्यांग प्रत्याशी को चुनाव के मैदान में नहीं उतारते, नेता अपने चुनावी वायदों में दिव्यांगों का जिक्र नहीं करते, शायद इसलिए कि उन्हें दिव्यांगों में वोट बैंक नहीं दिखाई देता। वहीं दूसरी ओर समाज में आज भी दिव्यांगों को दया या घृणा के पात्र के रूप में देखा जाता है। उनके सशक्तिकरण के कार्यक्रम को दया, धर्म और सेवा की भावना से किया गया कार्य माना जाता है, जबकि यह एक पेशेवर मामला है।

समाज की मुख्यधारा में शामिल न हो पाने का एक बड़ा कारण दिव्यांगों की समाज में स्वीकृति न हो पाना है। जब तक समाज का वो तबका जो किसी न किसी रूप से दिव्यांगों के जीवन को प्रभावित करता है, इनकी मौजूदगी को स्वीकार नहीं करेगा तब तक किसी भी तरह के बदलाव की कल्पना करना भी बेमानी ही होगा। जानकारी के अभाव में ज्यादातर लोग ये मानने को तैयार ही नहीं होते कि दिव्यांग व्यक्ति भी उन्हीं की तरह से गुणवत्तापूर्वक कार्यों को सम्पन्न कर सकते हैं। बड़ी संख्या में दिव्यांगों को बिना उनकी क्षमताओं को परखे हुए ही रोजगार के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है, क्योंकि वे दिव्यांग हैं। कहीं-कहीं तो साक्षात्कार के लिए आमंत्रित ही नहीं किया जाता। हकीकत में ऐसा नहीं है। आज नई तकनीकों और उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए दिव्यांगजन भी उसी तरह से तमाम कार्य कर सकते हैं जैसे कि एक आम आदमी करता है।

आज से कुछ साल पहले तक शारीरिक और मानसिक रूप से चुनौतीपूर्ण लोगों को विकलांग कहकर संबोधित किया जाता था। यह शब्द अपमानबोधक होने के साथ ही एक सामाजिक कलंक को भी प्रदर्शित करता है। इस दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाते हुए 2017 में देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार विकलांगों के लिए एक सम्मानजनक शब्द ‘‘दिव्यांग’’ का उपयोग करने की अपील की थी और इसके बाद से तमाम सरकारी दस्तावेजों में दिव्यांग, दिव्यांगता और दिव्यांगजन शब्द का उपयोग होने लगा है। यह निश्चित की प्रधानमंत्री मोदी की संवेदनशीलता और उनकी दूरदर्शिता को प्रदर्शित करता है।


केन्द्र सकार द्वारा 2016 में दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम को व्यापक रूप देते हुए 21 प्रकार की दिव्यांगताओं को शामिल किया है। इसके पहले तक सिर्फ 7 प्रकार की स्थितियां ही दिव्यांगता में शामिल थीं। इस दौरान केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा भी दिव्यांग बच्चों की समावेशित शिक्षा पर सार्थक कदम उठाए गए हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में दिव्यांग बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा प्रदान करने के लिए आधारभूत ढांचा तैयार करते हुए सभी सुविधाएं उपलब्ध कराए जाने की पहल भी की गई है। साथ ही केन्द्र सरकार ने दिव्यांगजनों की मु्फ्त शिक्षा, प्रशिक्षण, पुनर्वास और उपचार सेवाओं के कारगर बनाने के साथ ही बाधारहित वातावरण प्रदान करने की दिशा में अनेक योजनाएं और कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। इससे साबित होता है कि सरकार के दिव्यांग सशक्तिकरण के कदमों को अधिक मजबूत बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए समाज को भी आगे आना होगा।

आज जरूरत इस बात की है कि समाज दिव्यांगों के प्रति सकारात्मक और जागरूक हो। दिव्यांगों को दया नहीं, बल्कि अवसर उपलब्ध कराए जाएं। जिससे वे अपनी योग्यता सिद्ध कर सकें और समाज की मुख्यधारा से जुड़ सकें। दिव्यांगों में इन उपलब्ध अवसरों में अपनी भूमिका निभा सकने योग्य क्षमता पैदा करने की जिम्मेदारी हम सबको उठानी होगी। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के दिव्यांगों के सशक्तिकरण के लिए समाज और सरकार को सामूहिक कदम उठाने होंगे। दिव्यांगों को न सिर्फ समाज में समान अवसर, पूर्ण भागीदारी और उनके अधिकार मिलें बल्कि शिक्षा, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और बाधामुक्त वातावरण भी मिलें, यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है। दिव्यांगों की सामाजिक स्वीकृति उनके सफल सशक्तिकरण की दिशा मील का पत्थर साबित हो सकती है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि कोई भी व्यक्ति पहले एक आम नागरिक है और उसके अधिकारों से सिर्फ दिव्यांगता के आधार पर उसे लम्बे समय तक वंचित नहीं रखा जा सकता।



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