'भ्रष्टाचार की नदी पर रूपयों का पुल बनाएंगे , बिना आग के ही देखो ख्याली पुलाव पकाएंगे'

  • काव्य गोष्ठी में काव्य रश्मियों से आलोकित होते रहे श्रोता

✍️ सप्तग्रह रिपोर्टर 

मनावर,धार। चंद्रमा की दूधिया रोशनी में काव्य रश्मियो से श्रोता आलोकित होते रहे। गुलाबी ठंड में जगमगाती चांदनी की ओढ़नी ओड़े निशा में कवियों ने एक से बढ़कर एक गीत ,गजल, दोहा , व्यंग्य, हास्य आदि पेश कर समां बांध दिया। अवसर था अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा आयोजित काव्य गोष्ठी का।


कार्यक्रम के मुख्य अतिथि व्यंग्यकार विश्वदीप मिश्रा एवं वरिष्ठ साहित्यकार गोविंद सेन ने सरस्वती का पूजन किया। राजा पाठक ने अपनी सु मधुर आवाज में सरस्वती वंदना प्रस्तुत कर कार्यक्रम का श्री गणेश किया।


 बनू मैं आपकी राधा तुम मेरे श्याम हो जाओ... कवयित्री दीपिका व्यास ने श्रृंगार के विरह पक्ष में अपनी खनकती आवाज में काव्य प्रस्तुत करते हुए कहा कि मेरे बेचैन दिल का तुम जरा आराम हो जाओ ,बनू मैं आपकी राधा मेरे तुम श्याम हो जाओ। तुम्हारी एक झलक को ही तरसती हूं युगों से मैं, अहिल्या बन सकूं मैं राह कि ,तुम श्री राम हो जाओ। 


व्यंग्य कवि विश्वदीप मिश्रा ने राजनीति और व्यवस्था पर अपने व्यंग्य के माध्यम से कटाक्ष करते हुए कहा कि भ्रष्टाचार की नदी पर, रूपयों का पुल बनाएंगे ।बिना आग के ही देखो, ख्याली पुलाव पकाएंगे। 

नवोदित कवियत्री डॉक्टर खुशबू शर्मा ने पिता पर मार्मिक रचना पिता तुम्हारे बिन कोई नहीं में,मैं कौन हूं या हूं तो तू ही तो अस्तित्व है मेरा प्रस्तुत कर खूब दांद बटोरी। कुलदीप पंडया सागर ने अपनी ग़ज़ल में प्रेमिका की तुलना चांद से करते हुए कहा कि सामना होगा चांद का चांद से ,देखेंगे। भरेगा आहे वह भी आसमान से ,देखेंगे।


तरन्नुम में अपना गीत प्रस्तुत करते हुए बसंत जख्मी ने गाया कि यह मेरा मन सुलग रहा है, एक अनजानी पीड़ में ।ढूंढ रहा मिल जाए सुरमा, जयचंदो की भीड़ में। युवा गीतकार दीपक पटवा दिव्य ने मां की महिमा का वर्णन करते हुए अपने भावनात्मक गीत में कहा कि मेरी मायूसी पहचान लेती थी मां ।मुझे तकलीफ में जान लेती थी मां ।मैं बताऊं भले मां को कुछ भी नहीं। मेरी सच्चाइयां जान लेती थी मां। 

साहित्यकार गोविंद सेन ने अपने दोहे में चांद की रोटी से तुलना करते हुए कहा कि चंदा तेरी शक्ल को देखा है सौ बार। तुझसे रोटी भली पेट भरे संसार। अपने चुटिले अंदाज में कार्यक्रम का संचालन करते हुए सतीश सोलंकी ने विपरीत परिस्थितियों में हौसला रखने की सीख देते हुए गजल गुनगुनायी कि दिल भरोसा आशिया क्या नहीं टूटा। गनीमत रही कि हौसला नहीं टूटा। अंत में आभार शिवलाल मालवीय ने माना।

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