गणतंत्र के 75 साल : आसमान से नहीं आते और न ही किसी पेड़ से उगते नेता..!


  • जनता को बनाया बेवकूफ़, गणतंत्र का बना मजाक
  • जनता को इतना तो जागरुक होना होगा कि बचा सके संविधान की लाज 

26 जनवरी 1950 को 3 वर्ष की अथक मेहनत के बाद हमारे देश का संविधान लागू हुआ था। भारत के 75 वर्ष के गणतंत्र की अनेक उपलब्धियों पर हम गर्व कर सकते हैं, किंतु हम संतोष की सांस ले सकें या गौरव के परचम लहरा सकें, ऐसे अवसर उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। यह भी एक उतना ही कड़वा सच है कि 75 वर्षों में जनता को नेताओं ने इतना बेवकूफ बनाया है कि हर क्षेत्र में गणतंत्र एक मजाक बनकर रह गया है। यह भी विचारणीय है कि नेता आसमान से तो आते नहीं, और ना ही पेड़ पर उगते हैं। जनता से ही नेता चुने जाते हैं तथा जनता से ही विख्यात और कुख्यात लोग पैदा होते हैं। इसीलिए जनता की जिम्मेदारी है कि सही नेता का चुनाव करे। 75 वर्षों में राजनीति सिर्फ तमाशा बनकर रह गई है तो यह दोष सिर्फ राजनीति का नहीं, बल्कि उस 'जन' का भी है जिसके दम पर 'तंत्र' कायम होता है। हमारे चुनाव का सच यह है कि संसद में भेजे जाने वाले प्रतिनिधि वास्तव में प्रतिनिधि होते ही नहीं है।चुनावों के दौरान किसी भी शहर की आधी बुद्धिजीवी(?) जनता मतदान के लिए जाती ही नहीं है। जो आधी जनता मतदान करती है उनमें से भी कुछ फीसदी बाहुबली, धनबल और जाति बल के आधार पर उम्मीदवार का चयन करती है। इसी में एक हिस्सा उस जनता का भी होता है जो मतदान का मतलब व तरीका भी नहीं जानती। ऐसे में संसद तक पहुंचे उस व्यक्ति को प्रतिनिधि कैसे मान लें और किसका प्रतिनिधि मान लें? वह जनता जिसने उसका चुनाव किया है क्या वह वास्तव में जनता कहलाने योग्य है? और अगर नहीं, तो उस सारी जनता को बिजली, सड़क, पानी और सुविधाओं के लिए सड़कों पर उतरने का कोई हक नहीं। उसे नेताओं को कोसने का भी हक नहीं। एक पक्ष यह भी है कि जनता के सामने खड़े उम्मीदवारों में अगर हर कोई सांप-नाथ, तो कोई नाग-नाथ है, तो वह किसका चयन करें? उसके सामने अब 'इनमें से कोई नहीं' का विकल्प उपलब्ध है। इस विकल्प का सही प्रचार और प्रयोग होगा, तो सहज ही जनता द्वारा नकारे नेता एक तरफ होंगे और सही एवं ईमानदार छवि वाले युवा आगे आ सकेंगे। 75 वर्षों के पड़ाव पर आकर इस पर सोचना हमें ही है। क्योंकि यह जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है। और नेता कौन है? वह भी तो हम जनता के बीच से उठा प्राणी ही है। फिर भला अपने ही बीच के अच्छे तथा बुरे का अंतर क्यों नहीं समझ पा रहे? हादसों के बाद नेताओं को गालियां देना सहज प्रक्रिया हो सकती है, लेकिन कब तक?... कब तक हम अपनी गलतियों (मतदान) का ठीकरा उन पर फोड़ते रहेंगे। 75 वर्ष के परिपक्व गणतंत्र में जनता को इतना तो जागरुक व चैतन्य होना ही होगा कि हम अपने संविधान की लाज बचा सकें। 

जय हिंद, जय भारत

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