ईद-उल-फितर पर विशेष : बंदों के लिए अल्लाह का तोहफा है ईद

✍️ नौशाद कुरैशी 
हिन्दुस्तान त्यौहार का देश है। यहां एक पर्व जाता है तो दूसरा पर्व आता है। पर्वों के इस देश में हर त्यौहार को सौहार्द्र, प्यार और भाईचारे की भावना से मनाया जाता है। जिस उत्साह और उमंग के साथ यहां होली, दशहरा और दीपावली के पर्वों को मनाया जाता है उसी भाईचारगी के साथ यहां ईद-उल-फितर और इदुज्जुहा के त्यौहार भी मनाये जाते हैं। धर्म प्रधान हिन्दुस्तान में अनेकता में एकता वाली बात त्यौहारों पर खासतौर पर देखने को मिलती है। जिंदगी में खुशियों का रंग भरने वाला रंगोत्सव पर्व (होली) अभी-अभी धूमधाम से मनाया गया और दिलों में मिठास घोलने वाली मीठी ईद (ईद-उल-फितर) आ गई। मीठी ईद मुसलमानों का धार्मिक पर्व है। रमजान के महीने में तीस दिन तक रोजे रखने के बाद ईद मनाई जाती है। ईद अल्लाह का तोहफा है। 

'गले मिलेंगे सभी आज शादमां होकर। 

यह ईद शमा-ए-मुहब्बत जलाने आई है।।'

ईद तमाम रमजान के बाद अपने बंदों को अल्लाह का एक ऐसा तोहफा है जो रोजे रखने के बाद हासिल होता है। आमतौर पर ईद का अर्थ होता है खुशी। अरबी भाषा के ऊद शब्द से ही ईद शब्द बना है। ऊद शब्द का अर्थ है वह चीज जो बार-बार वापस आये। चूंकि ईद हर साल आती है, खुशियों का पैगाम लाती है और धूमधाम से मनाई जाती है। पहली ईद के बारे में कहा जाता है कि यह 27 मार्च 664 ई. में हजरत मुहम्मद ने अपने अनुयायियों के साथ मदीना - ए - मुनव्वरा से बाहर मनाई थी। जंगे बद्र में कामयाबी के बाद इसका आयोजन हुआ था। वैसे ईद के बारे में यह भी कहा जाता है कि जब अल्लाह ने बाबा आदम और मां हव्वा को माफ किया था, तो वह एक तरह की ईद थी। इसी तरह जब हजरत नूह की अल्लाह ने मसूलाधार बारिश और तूफान से हिफाजत की थी तो उसे भी ईद माना जाता है। ऐसे ही जब हजरत यूसुफ अपने भाईयों की दुश्मनी की वजह एक कुएं में डाल दिये गये और महफूज लौट आये तो उसे भी ईद कहा गया। लेकिन धर्म, कर्म और मर्म प्रेमी हिन्दुस्तान में ईद का मतलब खुशियां ही माना गया है।


बच्चे तो पहले रमजान से ही ईद का इंतजार करना शुरू कर देते हैं और तीस दिन निकालने उनके लिए बड़े मुश्किल हो जाते हैं। बच्चों की हलकान या समझाईश के लिए रमजान के तीस रोजों को तीन हिस्सों में बांटा गया। पहले दस जिकर के, दुसरे दस फिकर के और तीसरे दस घी - शकर के । अर्थात पहले दस रोजे तक तो जिकर ही चला करता है कि फलां ने रोजा नहीं रखा, फला मासूम बच्चे भी रोजा रख रहे हैं, आज दस रोजे हो गए। दूसरे दस रोजे में फिकर होती है कि ग्यारह रोजे हो गए अभी तक बच्चों के कपड़े बगैरह नहीं बने हैं। सिवाईयों का इंतजाम कब होगा? वगैरह वगैरह। तीसरे दस रोजे घी शकर के इसलिये कहे जाते हैं कि बस आठ रोजे बाकी, सात बाकी, पांच बाकी करते-करते ईद का चांद नजर आ जाता है।


नन्हें-मुन्ने बच्चे तो ईद का चांद देखते ही मारे-खुशी के झूम उठते हैं। गली-मुहल्ले में शोर मचाते फिरते हैं, 'ईद का चांद दिख गया, कल ईद है।' कई बच्चे सारी रात सो नहीं पाते इस इंतजार में कि सुबह ईद है। ईद का चांद देखने की भी बड़ी महत्ता होती है। इसके लिए रूईयत हिलाल कमेटी होती है जिनके कहने पर ही ईद मनाने का निर्णय होता है।

यदि आसमान साफ हो तो चांद साफ नजर आ जाता है, नहीं तो बादल होने पर चांद देखने की बात उसी सूरत में मानी जाती है जबकि दो व्यक्ति इस बात की शहादत (गवाही) देदें कि उन्होंने चांद देखा है। नहा धो लेने के बाद फज्र (सुबह) की नमाज अदा की जाती है। बाद नमाज-ए-फज्र नाश्ता किसी मीठी चीज से किया जाता है। क्योंकि मीठी चीज खाकर ईदगाह पर जाना सुन्नत है। नये कपड़े पहने जाते हैं, इत्र- खुशबु लगाई जाती है और लोग ईद की नमाज अदा करने के लिए ईदगाह पर जाते हैं। ईद की नमाज लोग ईदगाह में ही पढ़ते हैं। जहां ईदगाह नहीं है या बड़े शहरों में दूरदराज का मामला है और ज्यादा लोगों की वजह से ईदगाह में जगह की तंगी को देखते हुए कई लोग मस्जिदों में भी ईद की नमाज अदा करते हैं। नमाज के दौरान छोटे-बड़े और अमीर-गरीब में कोई फर्क नहीं रहता ऑडी कार वाले से लेकर हाथ ठेले वाला तक एक ही सफ (पंक्ति) में कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो नमाज पढ़ते हैं। किसी शायर ने क्या खूब कहा है- 

'एक ही सफ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज। 

न कोई बंदा रहा, न कोई बंदा नवाज।।'


नमाज के बाद इमाम साहब खुतबा पढ़ते हैं, सब लोग खामोश बैठकर उसे सुनते हैं । खुतबे में बताया जाता है कि इंसान खुदा का बंदा है, तमाम इंसान बराबर हैं, हर आदमी को अपने आमाल का हिसाब अल्लाह के यहां देना होगा, आदमी को हक है कि दुनिया में अपनी ख्वाहिश (इच्छा) की जिन्दगी बिताये मगर किसी को यह हक नहीं कि वह दूसरे की खुशी और सुकून को खत्म करे। ईद चूंकि सबकी खुशी का दिन है, इस रोज अधिक से अधिक व्यक्तियों से गले मिलना, ईद की मुबारकबाद देना अच्छा समझा जाता है। इससे गिले-शिकवे दूर होते हैं और सद्भावना भी बढ़ती है। सिवईयों का ईद के रोज अपना अलग ही महत्व होता है। सिवईयों की मिठास इंसानी रिश्तों को मजबूत करते हुए दिलों की मिठास को और बढ़ा देती है। गरीब लोगों के लिए इस्लाम में विशेष रूप से ईद के दिन ध्यान रखने को कहा गया है। ईद के मुबारक मौके पर मुसलमानों को इंसानी फर्ज अदा करते हुए अल्लाह से पूरी दुनिया की खुशहाली और अमन चैन से सरसब्ज करने की दुआ मांगनी चाहिए। किसी शायर ने क्या खूब कहा है कि-

'बच्चों को गरीबी का पता चल गया शायद, 

रमजान में अब उठकर वह सहरी नहीं खाते। 

सो जाते हैं फुटपाथ पर अखबार बिछा कर, 

मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।।'


रमजानुल मुबारक- अल्लाह इरशाद फरमाता है कि रमजान का महीना ऐसा मुबारक है, जिसमें कुरआन उतरा, लोगों के लिए हिदायत और रहनुमाई और फैसले की रोशन बातें हैं, तो तुम में कोई यह महीना पाए तो जरूर उसके रोजे रखे और जो बीमार या सफर में हो तो इतने रोजे और दिनों में रखें। पैगंबर हज़रत मुहम्मद रसूलल्लहा सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने फरमाया कि जब रमजान आता है आसमान के दरवाजे खोल दिये जाते हैं और एक रिवायत में आता है कि जन्नत के दरवाजे खोल दिये जाते हैं और जहन्नम (नर्क) के दरवाजे बंद कर दिये जाते हैं और शैतान जंजीरों में जकड़ दिये जाते हैं। रमजान का महीना बरकतों का महीना है। अल्लाह तआला ने इसके रोजे तुम पर फर्ज किए और उस में एक रात ऐसी है, जो हजारों महीनों से बेहतर है। जो उसकी भलाई से महरूम रहा वो बेशक महरूम है और जो शबकदर में इमान और सवाब के लिए नफ्ले (नमाज) पढ़ेगा और रमजान का रोजा रखेगा अल्लाह तआला उसके अगले-पिछले सब गुनाह बख्श देगा (बुखारी शरीफ जि.1, सफा-255)।


रोजा क्या है- अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है ऐ ईमान वालों तुम पर रोजे फर्ज किए गए और जैसे अगलों पर फर्ज हुए थे कि तुम्हें परहेज गारी मिले। (कन्जुल- ईमान तर्जुमा कुरआन पारा 2 रुकु 7 सफा 45 ) । शरीअत में रोजे के मायने हैं अल्लाह की इबादत की निय्यत से सुबह सादिक (सूर्योदय से पूर्व) से लेकर सूरज डूबने तक खाने पीने और जमा से अपने आपको रोके रखना। रोजे का उद्देश्य खुदा की इबादत के साथ ही पाबंद ज़िन्दगी का अभ्यास भी है।

नमाज-ए-तरावीह- रमजान की इबादतों में रोजे के साथ एक विशेष नमाज 'तरावीह' भी शामिल है। तरावीह की नमाज प्रारंभ में इशा की नियमित नमाज के बाद अदा की जाती है। रमजान का चांद दिखने के पश्चात तरावीह की शुरूआत होती है और ईद-अल-फितर का चांद नजर आते ही तरावीह का सिलसिला थम जाता है। नमाज-ए- तरावीह में कुरआन विशेष रूप से पढ़ा जाता है। माह-ए-रमजान को कुरआन से खास निस्बत है। इसलिए रमजानुल मुबारक में कलामपाक पढ़ने, सुनने और बार-बार दोहराने का अमल बढ़ जाता है। तरावीह में कुरआन सुनने की अहमियत इसी से वाजेह हो जाती है कि पैगंबर हजरत मुहम्मद रसूलल्लहा सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम के मुताबिक रोजा और कुरआन दोनों कयामत के दिन बन्दे की शफाअत (मोक्ष की सिफारिश) करेंगे। सरेशाम सड़कों पर टोपियों और कुर्ता-पायजामा धारियों की चहल-पहल तरावीह की अहमियत और लोगों के दिल में उसके एहतराम को जाहिर करती है।


आखिरी जुमा- जिस तरह रमजानुल मुबारक को बाकी महीनों पर फजीलत (प्रधानता) हासिल है, उसी तरह जुमे को बाकी दिनों पर बरतरी हासिल है। रमजानुल मुबारक का आखरी जुमा अपने आप में रहमतों, बरकतों, नेकियों और नेअमतों का खजाना समेटे हुए है। इसलिए इसकी आमद पर दुनियाभर के मुसलमान ईमान, फरहत और खुशी महसूस करते हैं। दरअसल, आखरी जुमा माहे मुबारक के रूखस्त होने का पैगाम और खत्म होने की निशानी है। रमजानुल मुबारक का आखरी जुमा अजीम अज्र व सवाब का दिन है। जो मुसलमान पूरे महीने रोजे रखते हैं उन्हें एक ओर वैसी ही खुशी होती है जैसे मुसाफिर की मंजिल करीब आ गई हो, लेकिन दूसरी तरफ वे यह सोचकर रंजीदा भी होते हैं कि रोजे और तरावीह की बरकत, सहरी और इफ्तार की फजीलतें, तिलावतें, कलाम-पाक की रूह पखर आवाजें अब खत्म हो रही हैं। अल्लाह की नजर में ये दोनों अलग-अलग कैफियतें काबिल-ए- कद्र हैं। रमजानुल मुबारक का आखरी जुमा मुसलमानों को यह पैगाम देता है कि जो वक्त बाकी रह गया है उसमें गफलत हुई हो, तो उसकी माफी के लिए इसका फायदा उठाया जाए। पैगंबर हजरत मुहम्मद रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने जुमे को सय्यदुल अय्याम (दिनों का सरदार) और अफजलुल अय्याय (दिनों में सर्वोत्तम) फरमाया है। जुमे के दिन का अल्लाह की मेहरबानी और फज्ल से खास ताल्लुक़ है। इस दिन हज़रत आदम अलैहिस्सालम पैदा किए गए, इसी दिन जन्नत में दाखिल किए गए, इसीदिन जन्नत से निकाले गए और इसी दिन कयामत होगी।


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