उर्दू साहित्य के शोधकर्ता डॉ. राज बहादुर गौड़ की खि़दमात को उजागर करने की ज़रूरत


‘‘उर्दू वालों को किसी खुशगुमानी में रहने की ज़रूरत नहीं है। उर्दू को उसका हक़ मिलने तक मेहनत करने की ज़रूरत है।’

✍️एम. डब्ल्यू. अंसारी
(लेखक, रिटायर्ड डीजीपी हैं।)

मुजाहिदे आज़ादी डॉ. राज बहादुर गौड़ हैदराबाद दक्कन के लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता, प्रसिद्ध ट्रेड यूनियन लीडर, उर्दू साहित्य के विद्वान और हिंदू-मुस्लिम एकता के अग्रदूत थे। वह पहले व्यंग्यकार हैं जिन्होंने समकालीन तेलुगू व्यंग्य की नींव रखी। उन्होंने तात्कालिक नाटक लिखे। तेलुगू शायरों का इतिहास जमा किया। अपनी आत्मकथा लिखी जो तेलुगू में पहली आत्मकथा है। उन्होंने आधुनिक तेलुगू पत्रकारिता की नींव रखी और ‘विवेक वर्धनी’ पत्रिका जारी की। उनका एक व्यंग्य परिशिष्ट था ‘हास्य संजोनी’। महिलाओं की शिक्षा और सुधार के लिए संस्थाओं की स्थापना की और ‘सत हत बुधनी’ पत्रिका का प्रकाशन किया।

उर्दू साहित्य के विद्वान डॉ. राज बहादुर गौड़

उन्होंने भाषा में सुधार किया। उन्होंने स्वयं से पूछाः ‘भाषा का उद्देश्य क्या है?’ फिर उन्होंने स्वयं इसका उत्तर दियाः ‘भाषा का मुख्य उद्देश्य विचारों को दूसरों तक पहुंचाना है। भाषा जितनी सादा और सरल होगी, विचारों को उतने ही अधिक प्रभावी ढंग से व्यक्त किया जा सकता है।’ उर्दू और तेलुगू भाषाओं का मेल मिलाप किया और यह उनकी ही देन है कि आज उर्दू और तेलुगू दोनों भाषाएँ आंध्र और तेलंगाना का अच्छा विकास कर रही हैं।

डॉ. राज बहादुर गौड़ का जन्म 21 जुलाई, 1918 को हैदराबाद शहर के मोहल्ला गोलीपुरा में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मुफीद उल-अनाम, धर्मावंत और रिफाहे आम स्कूलों में हुई। चादर घाट हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और उसी वर्ष उस्मानिया विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट में प्रवेश लिया। इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1943 में उस्मानिया मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी की। 1952 में उन्हें राज्य विधानसभा द्वारा राज्य सभा के सदस्य के रूप में चुना गया और कार्यकाल पूरा होने के बाद, उन्हें 1958 में फिर से राज्य सभा के दूसरे कार्यकाल के लिए चुना गया। 1962 में उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी की सिटी पार्टी का सचिव नियुक्त किया गया।

डॉ. राज बहादुर गौड़ उर्दू आर्टस महाविद्यालय के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। अपनी मृत्यु से एक सप्ताह पहले उन्होंने उर्दू एजुकेशन ट्रस्ट को तीन लाख रुपये का भारी दान दिया था। उर्दू हॉल, अंजुमन तरक्की उर्दू और संबंधित संस्थाओं की आजीवन सेवा की। उनकी किताबें साहित्यिक अध्ययन और साहित्यिक परिप्रेक्ष्य अंजुमन प्राघी उर्दू (भारत) द्वारा प्रकाशित की गई हैं। उन्होंने साहित्यिक ग्रंथों पर टिप्पणियाँ लिखीं। फैज अहमद फैज, फिराक गोरखपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी, प्रेमचंद आदि पर उनके लेख विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। दिल्ली के अलावा भारत के प्रमुख शहरों में आयोजित साहित्यिक, राजनीतिक एवं सामाजिक बैठकों में भाग लिया। उन्होंने एक बार अपने भाषण में कहा था कि ‘‘उर्दू वालों को किसी खुशगुमानी में रहने की ज़रूरत नहीं है। उर्दू को उसका हक़ मिलने तक मेहनत करने की ज़रूरत है।’’

उर्दू भारत की जुबान है और ये मुख्तलिफ तेहज़ीबों की तर्जुमान है और खास कर जंगे आज़ादी की जुबान है। पूरे भारत को जोड़ने वाली जुबान है, प्यार व मोहब्बत का पैगाम देने वाली जुबान है। यही जुबान है जिस ने तमाम भारत वासियों को एक धागे में पिरोया हुआ है।

उर्दू के एक निडर प्रवक्ता, जिन्होंने अपने कई भाषणों में उर्दू के अस्तित्व और विकास के लिए उर्दू लोगों को जानकारी दी और खुद भी इसके अस्तित्व और विकास के लिए हर संभव प्रयास किये और वह दक्षिण भारत में उर्दू भाषा को बढ़ावा देने के लिए हर कदम उठाते रहे। अब वह इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन हमें उनके आंदोलन को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए जो उन्होंने उर्दू के अस्तित्व और विकास के लिए शुरू किया था और उर्दू के अस्तित्व और विकास के लिए उर्दू विद्वानों/बुद्धिजीवियों से अपील की थी। उन्होंने अपने आखिरी दिनों में उर्दू एजुकेशन ट्रस्ट को 3 लाख रुपये का दान दिया था। उर्दू के अस्तित्व और विकास के लिए यह उनका आखिरी संदेश भी है।

इसलिए भारत के प्रत्येक नागरिक को उर्दू के अस्तित्व और विकास के लिए अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। क्योंकि उर्दू सिर्फ एक भाषा नहीं बल्कि यह भारत की संस्कृति और सभ्यता है। जो भारत के सभी नागरिकों को एक साथ रखने, शांति और सद्भाव बनाए रखने का काम करती है और भारत के विकास का रहस्य भी इसी में छिपा है। आज देखने में आ रहा है कि जिनकी रोज़ी रोटी उर्दू है, वे संघर्ष करने के बजाय भारत की बेटी के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। विशेषकर उत्तर भारतीयों को इसके लिए संघर्ष करना चाहिए। इस भाषा की हिफाज़त के लिए जरूरी है कि उर्दू संस्थाओं को बहाल किया जाए, खुद उर्दू पढ़ें और अपने बच्चों को उर्दू पढ़ाएं। उर्दू लिपि को अपनाएं, उर्दू लिपि अपनाना ही उर्दू पढ़ना, लिखना और जानना है।

बता दें कि 7 अक्टूबर 2011 की सुबह उर्दू साहित्य के शोधकर्ता डॉ. राज बहादुर गौड़ का निधन हो गया और 8 अक्टूबर को उन्हें दफनाया गया। हम उनके जन्मदिन पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।


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