उर्दू भाषा के फ़रोग़ से ही नई पीढ़ी को फिराक़ गोरख़पुरी जैसी शख़्सियतों से कराया जा सकता है परिचित


  • रघुपति सहाय यानी फिराक़ गोरखपुरी की जयंती पर विशेष 

✍️एम.डब्ल्यू .अंसारी (आई.पी.एस)

लेखक, सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं।

सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़वाम-ए-आलम के ‘फिराक़’। 

क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया।। 

मुमताज़ मुजाहिदे आज़ादी, जदीद उर्दू गज़ल के इमाम, बे बदल शायर, नक्कद, रघुपत सहाय फिराक़ गोरखपुरी को उनकी उर्दू सेवाओं के लिए न केवल भारत में बल्कि विश्व साहित्य में भी महत्व दिया जाता है। रघुपति सहाय ‘फिराक’ 28 अगस्त 1896 का जन्म गोरखपुर, उत्तर प्रदेश के बांस गांव में कायस्थ परिवार में हुआ और 3 मार्च 1982 को वह इस दुनिया से चले गए। हम फराक गोरखपुरी को उनके यौमे पेदाइश पर खि़राजे अक़ीदत पेशा करते हैं। 

फिराक़ गोरखपुरी की इब्तिदाई तालीम घर पर हुई और उन्होने उर्दू, अरबी, फारसी ज़बान में महारत हासिल की। इब्तिदाई तालीम हासिल करने के बाद इलाहाबाद चले गए। 1918 में सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण की लेकिन नौकरी नहीं मिली। इसके बाद वह देश की आज़ादी के संघर्ष में शामिल हो गए और जेल की यातनाएं सहीं। 1930 में, उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में एमए किया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए।


फिराक गोरखपुरी ने उर्दू और अंग्रेजी साहित्य का व्यापक अध्ययन किया था। वह आधुनिक उर्दू गजल के इमाम हैं। फिराक की गिनती उन उर्दू शायरों में होती है जिन्होंने बीसवीं सदी में उर्दू गजल को एक नया रंग और सौहार्द दिया। उनके शायरी संग्रह में रूह कायनात, शबिस्तान, रम्ज़ व किनायात, गज़लस्तान, रूप ‘रूबाई, शोला साज़, पिछली रात, मशअल और गुले नगमा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। फिराक गोरखपुरी का निजी जीवन बहुत शांतिपूर्ण नहीं था बावजूद इसके उर्दू भाषा और साहित्य के लिए के फिराक की सेवाओं को कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनकी बहुमूल्य सेवाओं के लिए उन्हें पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया।

उर्दू भाषा पूरे भारत को और केवल भारत को ही नहीं बल्कि पूरे विश्व को एक सूत्र में बांधती है और लगातार बांधने का काम कर रही है। नफरत की आँधी में प्यार का दीया जलाए हुए है। उसी उर्दू भाषा के साथ आज इस देश में भेदभाव किया जा रहा है। उर्दू को अपने ही देश भारत में अपने ही लोगों से वह दर्जा नहीं मिल पा रहा है, जो मिलना चाहिए। इसके बावजूद, उर्दू अपनी आंतरिक ताकत के कारण दुनिया की 7वीं बोली जाने वाली भाषा बन गई है और यहां तक ​​कि यूएनओ की आधिकारिक भाषा भी बन गई है।

आज उर्दू शिक्षकों की नियुक्ति की जरूरत है। महाविद्यालयों में उर्दू, अरबी, फारसी विभाग खोले जाएं। छात्रों को उर्दू पाठ्यक्रम की पुस्तकें विशेषकर विज्ञान, गणित, जीवविज्ञान, प्रौद्योगिकी आदि की पुस्तकें उपलब्ध करायी जानी चाहिए। यह सरकार की जिम्मेदारी है, जिसे सरकार पूरा नहीं कर रही है।

प्रान्तीय सरकारें, चाहे वे किसी भी पार्टी की हों, उर्दू के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया अपना रही हैं और वे जानबूझकर अपने काम की जिम्मेदारी नहीं निभा रही हैं। सभी उर्दू प्रेमियों को एक मंच पर आकर कंधे से कंधा मिलाकर उर्दू के अस्तित्व और विकास के लिए आवाज उठानी चाहिए। सभी सरकारों ने उर्दू भाषा के प्रति जो पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया है, उसके खिलाफ आवाज उठानी होगी।


निस्संदेह, फिराक़ गोरखपुरी की उर्दू भाषा के प्रति सेवाएँ अविस्मरणीय हैं। उनकी सेवाओं के सम्मान में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण और ज्ञान पीठ जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से भी सम्मानित किया। लेकिन आज वह प्रिय भाषा जो रघुपत सहाय फिराक के दिल की भाषा थी, ख़तरे में है। भारत की प्रिय भाषा उर्दू की व्यापकता को सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है। अगर आज फिराक़ गोरखपुरी जीवित होते तो भारत की बेटी और हिंदी की बहन उर्दू के साथ जो सौतेला व्यवहार हो रहा है, वह बहुत दुखी होता। उर्दू ने फिराक गोरखपुरी, बृज नारायण चकबस्त, आनंद नारायण मुल्ला, जगन्नाथ आज़ाद जैसे हज़ारों शायरों, उपन्यासकारों, लेखकों कोे पूरी दुनिया को परिचित कराया आज उर्दू के साथ सौतेला व्यवहार यकीनन उनकी रूह को तकलीफ पोंहचाता है।

तमाम मुसीबतों के बीच उर्दू की खिदमत करने वाले फिराक़ गोरखपुरी को उनके जन्मदिन पर हम सलाम करते हैं। हम सब संकल्प लें कि हम भारत की बेटी को बचाने का बीड़ा उठाएंगे और निश्चित ही हमारे छोटे-छोटे प्रयासों से एक बड़ी क्रांति आएगी। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज उर्दू लिपि है। हमें उर्दू लिपि को अपनाना होगा। इस प्रकार हम स्वयं अपनी भाषा के संरक्षक बन सकते हैं और अपनी भाषा के अस्तित्व और विकास में भाग ले सकते हैं और यही फिराक़ गोरखपुरी और उनके जैसे खादिमीने उर्दू के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें। 

और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं।। 

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