'जलाओ दिये कि मिट जाए दिलों का अंधेरा'
"सब खामोश हैं यहां कोई आवाज नहीं करता।
सच बोलकर कोई किसी को नाराज नहीं करता।।"
अब तो दीपावली ही नहीं, हर त्यौहार ने लोगों को स्टेटस की होड़ में शामिल कर दिया है। पड़ोसी की तुलना में उनके बच्चे कितना महंगे कपड़े पहन सकें, पटाखे दगा सकें और दीयों की जगमगाती कतारों की जगह रंगीन बल्बों की झालरें (अब तो चाइनीज़ झालरों की धूम है) कैसे सजाई जा सकें, यह अहम मसला हो गया है। बहरहाल, बड़े शहरों से दीये विदा ले चुके हैं,लेकिन बस्तियों, कस्बों और गांवों में दीये जलाने की परम्परा थोड़ी बहुत बाकी है। वैसे वहां भी झालर संस्कृति बढ़ रही है।
दीपों से बढ़ते इस परहेज की वजह से कुम्हारों का रोजगार प्रभावित हुआ है। दीयों, कुंजों की अप्रचलित होती जा रही परंपरा से कुम्हारों के व्यवसाय की लम्बे समय से चल रही गर्दिश की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। बीते एक दशक में बिजली से जगमगाने वाले झालरों, लड़ियों, रंग-बिरंगे बल्बों सहित अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामग्री का प्रचलन काफी बढ़ा है। हाइटेक युग ने परंपराओं को ओझल करना शुरू कर दिया है। पहले दीपावली में दीपों का उपयोग होता था और जिससे इनकी अच्छी आमदनी हो जाती थी।
"नई सहर के हसीन सूरज तुझे ग़रीबों से वास्ता क्या।
जहाँ उजाला है सीम-ओ-ज़र का वहीं तिरी रौशनी मिलेगी।।"
भौतिकता का बढ़ता समंदर किस तरह गरीबी के टापू निगलता जा रहा है, इसकी यह एक छोटी सी मिसाल है। भारतीय परिवेश में मध्यमवर्गीय गृहणियों के लिए त्यौहार हमेशा ही थोपी हुई मजबूरी होते हैं, क्योंकि त्यौहार में कपड़े बनवाने से लेकर पटाखे लाने तक का सारा इंतजाम करना होते हैं।
वैसे अब दीवाली धनी लोगों के लिए ही आती है। जो तरह- तरह के महंगे और अद्भुत पटाखों से अपने पड़ोसियों से होड़ लेते अथवा चमत्कृत करते हैं और दीपावली की पूरी रात पटाखे छुड़ाते हुए गुजार देते हैं।उनके आसपास ज्यादातर ऐसे बच्चे होते हैं जिनकी सालभर की बचत उन्हें मुट्ठी भर पटाखे मुहैया नहीं करा पाती है। वह मन ही मन ललचाते हुए छोटे-मोटे पटाखों को फूंककर कुंठित मन के साथ दीपावली मनाते हैं।
हक़ीक़त में अब दीपावली बदल गई है। दीपावली के अर्थ बदल गए हैं। गंध और उद्देश्य लुप्त हो रहे हैं। दीपावली का अर्थ 'असत्य पर सत्य की विजय' खोता नजर आ रहा है। जिंदगी के हर मोर्चे पर असत्य, सत्य पर हावी होता जा रहा है। सिर्फ वर्ग भेद नहीं, सांप्रदायिकता का कारण भी दीपावली को बनाया जाने लगा। शायद इसकी वजह सिर्फ यह उम्मीद करके रह जाना है कि काश ! असत्य पर सत्य की जय होती पर इसकी सच्ची कोशिश कभी नहीं हुई। खैर दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है। एक वो भी दिवाली थी एक ये भी दिवाली है। किसी ने सच ही कहा है कि -
"नफरत का खुद का कोई अस्तित्व नहीं होता।
वह केवल प्रेम की गैरहाज़िरी का परिणाम है...।।"
वास्तव में जरुरत इस बात की है कि हम किसी भी त्यौहार में एक-दूसरे के प्रति संवेदनाओं को भी जीवित रखें। दीपावली को ऊपरी तौर से मनाने के बजाए इसके वास्तविक रुप और सौहार्द्र की वसुधैव कुटुम्बकम् की परम्परा के साथ मनाएं जिसे दिन-प्रतिदिन हम भुलाते जा रहे हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है जो महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध है। इसका अर्थ है- धरती ही परिवार है (वसुधा एवं कुटुम्बकम्)। यह वाक्य भारतीय संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है।
अयं बन्धुरयं नेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(महोपनिषद्, अध्याय 6, मंत्र 71) अर्थ - यह (मेरा) बन्धु है और यह नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त (सञ्कुचित मन) वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है। महान लेखकों द्वारा भी इसकी चर्चा बड़े-बड़े ग्रंथ में की गई है।
🎉 शुभ दीपावली 🎉
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